
चेक अनादरण—दोष-मुक्ति के विरुद्ध अपील—विवादित चेक पर हस्ताक्षर एवं लेखन दोनों ही भिन्न-भिन्न स्याही से किए गए थे—शिकायतकर्ता के बयान में चेक के निष्पादन के संबंध में असंगति पाई गई—चेक के निर्गमन की किसी विशिष्ट तिथि के अभाव ने शिकायतकर्ता के मामले को और अधिक दुर्बल बना दिया—चेक अनादरण का अपराध अपनी प्रकृति में नियामक होते हुए, परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 118 एवं 139 के अधीन प्रदत्त वैधानिक उपधारणाओं को अभिखण्डित (rebut) किया जा सकता है, और इनका अर्थान्वयन समानुपातिकता के सिद्धांत (principle of proportionality) के आलोक में किया जाना चाहिए—जब अभियुक्त ऐसा संभाव्य प्रतिरक्षा (probable defence) प्रस्तुत करता है जिससे विधिक रूप से प्रवर्तनीय देयता अथवा ऋण (legally enforceable debt or liability) के अस्तित्व पर युक्तिसंगत संदेह उत्पन्न होता है, तब सिद्ध करने का भार पुनः शिकायतकर्ता पर स्थानांतरित हो जाता है—निर्दोषता का अनुमान (presumption of innocence) आपराधिक न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत है—अतः जब विचारण न्यायालय ने यह पाया कि अभियुक्त ने अनुमानों को सफलतापूर्वक खंडित कर दिया तथा शिकायतकर्ता ऋण या देयता सिद्ध करने में असफल रहा, तो उस निर्णय में हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं है—अपील निरस्त।
