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विवाह के अपूरणीय रूप से टूटने का इस्तेमाल विवाह के टूटने के लिए जिम्मेदार पक्षकार के लाभ के लिए नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट द्वारा पत्नी के खिलाफ तलाक का आदेश देने में अपनाए गए यांत्रिक दृष्टिकोण पर निराशा व्यक्त की, जबकि पत्नी की कोई गलती नहीं थी।

कोर्ट ने कहा कि पति को विवाह रद्द करने की मांग करने से कोई लाभ नहीं हो सकता, जबकि वैवाहिक संबंध टूटने के लिए वह पूरी तरह जिम्मेदार था।

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्ज्वल भुयान की खंडपीठ ने कहा,

“विवाह के अपूरणीय रूप से टूटने का डर उस पक्ष (इस मामले में पति) के लाभ के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, जो वैवाहिक संबंध को तोड़ने के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है।”

यह ऐसा मामला है, जिसमें विवाहेतर संबंध से बच्चे के जन्म के तुरंत बाद पति/प्रतिवादी ने अपनी पत्नी/अपीलकर्ता और बच्चे को छोड़ दिया। परिणामस्वरूप, पति ने क्रूरता के आधार पर तलाक की याचिका दायर की, जिस पर फैमिली कोर्ट ने पत्नी के विरुद्ध निर्णय सुनाया, जिसके बाद अपील पर हाईकोर्ट ने निर्णय रद्द किया और मामला फैमिली कोर्ट में वापस भेज दिया।

इसके बाद फैमिली कोर्ट ने विवाह के अपरिवर्तनीय विघटन के आधार पर एक और निर्णय पारित किया, जिसे अपील पर हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया और मामला फैमिली कोर्ट में वापस भेज दिया।

तीसरी बार भी किस्मत ने पत्नी का साथ नहीं दिया, क्योंकि पति ने फैमिली कोर्ट से तलाक का निर्णय प्राप्त कर लिया। हालांकि, इस बार 25,00,000/- (पच्चीस लाख रुपये) के स्थायी गुजारा भत्ते के भुगतान पर निर्णय दिया गया। हाईकोर्ट ने निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन स्थायी गुजारा भत्ते की राशि को घटाकर 20,00,000/- (बीस लाख रुपये) कर दिया।

पति ने स्थायी गुजारा भत्ता राशि दिए जाने के खिलाफ अपील नहीं की, लेकिन पत्नी ने फैमिली कोर्ट द्वारा दी गई स्थायी गुजारा भत्ता राशि को कम करने के हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

मामले के तथ्यों पर गौर करने के बाद न्यायालय ने कहा कि पति ने ही अपनी पत्नी और बेटे को छोड़ दिया। साथ ही इतने सालों तक अपनी पत्नी के साथ बहुत क्रूरता की और अपने बेटे के बेहतर भविष्य को सुरक्षित करने के लिए कभी भी कोई सहायता करने या उसकी स्कूली शिक्षा के लिए भी भुगतान करने की पेशकश नहीं की।

न्यायालय ने कहा,

“पक्षकारों के वकीलों को सुनने और अभिलेखों के अवलोकन के बाद हमें ऐसा लगता है कि न्यायिक प्रणाली अपीलकर्ता और उसके नाबालिग बच्चे, जो अब वयस्क हो चुका है, उनके प्रति बहुत ही अन्यायपूर्ण रही है। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि प्रतिवादी ने ही इतने सालों तक अपीलकर्ता के साथ बहुत क्रूरता की। अपने बेटे के बेहतर भविष्य को सुरक्षित करने के लिए कभी भी कोई सहायता करने या उसकी स्कूली शिक्षा के लिए भी भुगतान करने की पेशकश नहीं की।”

अदालत ने कहा,

“जिस यांत्रिक तरीके से फैमिली कोर्ट अपीलकर्ता के खिलाफ तलाक के आदेश पारित करता रहा, वह न केवल संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है, बल्कि अपीलकर्ता के खिलाफ छिपे हुए पूर्वाग्रह को भी दर्शाता है। अदालतों को प्रतिवादी के खुद के अपराधों को कोई महत्व नहीं देना चाहिए था।”

चूंकि दोनों पक्ष वर्ष 1992 या उसके आसपास से अलग-अलग रह रहे थे, इसलिए अदालत ने फैमिली कोर्ट द्वारा दिए गए तलाक का आदेश बरकरार रखना उचित समझा। हालांकि, अदालत ने प्रतिवादी/पति को अपीलकर्ता/पत्नी को पहले से भुगतान की गई राशि के अलावा अतिरिक्त 10,00,000/- (दस लाख रुपये) का भुगतान करने का निर्देश दिया।

इसके अलावा, अदालत ने उस संपत्ति पर स्वामित्व प्रदान किया, जहां अपीलकर्ता अपने बेटे के साथ रह रही है। प्रतिवादी को अपीलकर्ता और उसके बेटे के शांतिपूर्ण स्वामित्व और कब्जे के अधिकारों में हस्तक्षेप न करने का निर्देश दिया।

केस टाइटल: प्रभाती @प्रभामणि बनाम लक्ष्मीमीशा एम.सी., एसएलपी (सी) नंबर 28201/2023

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