■ हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की प्रतिस्थापित धारा 6 में निहित प्रावधान संशोधन से पहले या बाद में पैदा हुई पुत्री को पुत्र के समान अधिकार और दायित्व के रूप में सहदायिक (Coparcener) का दर्जा प्रदान करते हैं।
■ सहभागी सम्पत्ति में एक पुत्री का अधिकार जन्म से होता है और इसलिए, यह आवश्यक नहीं है कि पिता दिनाँक—09.09.2005 तक जीवित हो। इस प्रकार, फूलवती (2016) के निर्णय को खारिज कर दिया जाता है और दानम्मा (2018) मामले में निर्णय को आंशिक रूप से खारिज (Partially Overruled) कर दिया जाता है।
■ पारिवारिक-समझौता (Family Settlement) प्रामाणिक होना चाहिए ताकि परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच उचित और न्यायसंगत विभाजन या संपत्ति के बँटवारे द्वारा पारिवारिक विवादों और प्रतिद्वंद्वी दावों को हल किया जा सके।
■ असाधारण मामलों में जहां मौखिक बँटवारा की दलील सार्वजनिक दस्तावेजों द्वारा समर्थित है और बँटवारे को अंततः उसी तरीके से दिखाया गया है जैसे कि यह एक अदालत के डिक्री से प्रभावित हुआ था, इसे स्वीकार किया जा सकता है। केवल मौखिक साक्ष्य के आधार पर बँटवारे की दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता है और इसे सिरे से खारिज किया जाना चाहिए।
■ भले ही विभाजन एक पंजीकृत दस्तावेज़ द्वारा समर्थित हो, यह साबित करना आवश्यक है कि इसे लागू किया गया था।