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S. 58(f) TPA | ऋण के प्रति सुरक्षा के रूप में टाइटल डीड प्रस्तुत करना समतामूलक बंधक के निर्माण के बराबर: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ऋण के प्रति सुरक्षा के रूप में संपत्ति के टाइटल डीड प्रस्तुत करना संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (TPA Act) की धारा 58 (एफ) के तहत ‘टाइटल डीड जमा करके बंधक’ के निर्माण के बराबर है।

यह ऐसा मामला था, जिसमें प्रतिवादी/प्रतिवादी ने अपीलकर्ता से ऋण लिया था और अपीलकर्ता से लिए गए ऋण की राशि के लिए संपत्ति का टाइटल डीड प्रस्तुत किया था। प्रतिवादी और अपीलकर्ता के बीच समझौता हुआ था कि प्रतिवादी अपीलकर्ता के पक्ष में सेल डीड निष्पादित करेगा, जब अपीलकर्ता के लिए आवश्यकता उत्पन्न होगी। हालांकि, प्रतिवादी द्वारा अपीलकर्ता के पक्ष में कोई सेल डीड निष्पादित नहीं किया गया।

इस प्रकार, अपीलकर्ता द्वारा मद्रास हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश के समक्ष प्रतिवादी के विरुद्ध अनुसूचित संपत्ति की प्रारंभिक बंधक डिक्री तथा बंधक संपत्ति की बिक्री की मांग करते हुए मूल सिविल मुकदमा दायर किया गया।

संक्षेप में मामला

अपीलकर्ता ने दलील दी कि ऋण राशि के लिए सुरक्षा के लिए प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत संपत्ति के टाइटल डीड, टाइटल डीड को जमा करके समतामूलक बंधक बनाते हैं, जिससे अपीलकर्ता को ऋण राशि वसूलने के लिए बंधक संपत्ति को बेचने का अधिकार मिलता है।

प्रतिवादी ने दलील दी कि ऋण राशि के लिए संपत्ति के टाइटल डीड का उत्पादन TPA Act की धारा 58(एफ) के तहत बंधक के निर्माण के बराबर नहीं होगा, क्योंकि समझौते में बंधक के निर्माण का प्रावधान नहीं है। प्रतिवादी के अनुसार, टाइटल डीड इसलिए प्रस्तुत किए गए, जिससे सेल डीड अपीलकर्ता की मांग पर उसके पक्ष में निष्पादित किया जा सके।

हाईकोर्ट के एकल जज ने अपीलकर्ता के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि प्रतिवादी-प्रतिवादी ने टाइटल डीड को जमा करके “समतामूलक बंधक बनाने” पर सहमति व्यक्त की थी। हालांकि, प्रतिवादी द्वारा पेश की गई अंतर-न्यायालयीय अपील पर खंडपीठ ने एकल पीठ के निर्णय को पलट दिया और माना कि अपीलकर्ता यह साबित करने में विफल रहा है कि प्रतिवादी द्वारा कोई बंधक निष्पादित किया गया था।

इसके बाद हाईकोर्ट के खंडपीठ के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील पेश की गई।

खंडपीठ के निर्णय को अलग रखते हुए जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की खंडपीठ ने कहा कि एकल न्यायाधीश के निष्कर्षों में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, क्योंकि “एकल न्यायाधीश ने तथ्यों के समूह को सही परिप्रेक्ष्य में देखा था, अर्थात, प्रतिवादी ने समझौते के माध्यम से टाइटल डीड को जमा करके बंधक बनाया था।”

जस्टिस अमानुल्लाह द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया,

खंडपीठ यह निष्कर्ष निकालने में त्रुटिपूर्ण रही कि वाद में दिए गए कथन स्वयं-विरोधाभासी, अस्पष्ट हैं और बंधक का स्पष्ट मामला नहीं बनाते हैं।”

साथ ही न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अपीलकर्ता और प्रतिवादी के बीच टाइटल डीड को जमा करके समतामूलक बंधक के निर्माण के संबंध में किए गए समझौते को रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि समझौते में केवल पक्षों के बीच हुई घटना को दर्ज किया गया और यह अधिकारों या देनदारियों को समाप्त/सृजित नहीं करता।

इस संबंध में न्यायालय ने हरियाणा राज्य बनाम नरवीर सिंह, (2014) 1 एससीसी 105 के मामले का संदर्भ दिया, जहां यह माना गया कि “केवल लेनदेन को रिकॉर्ड करने वाला दस्तावेज़ जो पहले ही संपन्न हो चुका है और जो कोई अधिकार और देनदारियों को उत्पन्न नहीं करता है, उसे रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता नहीं है।”

न्यायालय ने कहा,

“हमारा मानना ​​है कि एकल न्यायाधीश ने अधिनियम की धारा 58(एफ) के मद्देनजर समझौते को बंधक मानने के संबंध में कानून की सही ढंग से सराहना की है। हमने समझौते को पढ़ा और फिर से पढ़ा है। हमने नरवीर सिंह (सुप्रा) में बनाए गए कानून की व्याख्या पर भी बारीकी से विचार किया है। हमारा मानना ​​है कि समझौता केवल वही रिकॉर्ड करता है, जो हुआ है और यह अधिकारों/दायित्वों को उत्पन्न/सृजित नहीं करता है।”

तदनुसार, अपील को अनुमति दी गई, जिससे हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश का निर्णय बहाल किया गया। हालांकि, ब्याज दर में कमी के संबंध में थोड़ा संशोधन किया गया, जिसका दावा अपीलकर्ता द्वारा किया गया था और उसे अनुमति दी गई थी।

न्यायालय ने कहा,

“36% प्रति वर्ष की दर से ब्याज अत्यधिक है। हम न्याय के हित में इसे घटाकर 12% प्रति वर्ष करते हैं। इसलिए 24.06.2000 से वसूली की तारीख तक साधारण ब्याज केवल 12% प्रति वर्ष की दर से चलेगा।”

केस टाइटल: ए.बी. गोवर्धन बनाम पी. रागोथमन, सिविल अपील संख्या 9975-9976 वर्ष 2024

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